Monday 13 May 2013

Inspiratonal lines




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स्वयं ही


अरे देखो 
कब ठहरा है समय
और 
कब कौन 
किसके लिए 
कभी मरता है ....
समय है -
गतिशील 
हर कोई 
स्वयं ही 
उठता है और 
गिरता है ....
समझो इसे 
सोचो इसे 
पैठो चिंतन के सागर में 
यदि होगा 
साहस 
अटल गहराइयों में -
कूदने का,
तब उठोगे ....
छु लोगे 
आकाश सारा 
जब चलाओगे 
स्वयं पतवार 
किश्ती छु पाएगी 
तभी कोई किनारा ....


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सूरज

है अँधेरा घोर 
फिर भी
मार्ग का संज्ञान मुझको 
जब कोई सूरज 
उगेगा 
काहल पड़ेंगे 
पाँव खुद ही ....

हर अँधेरे में 
छिपा है 
बीज नवल विहान का 
है अगर विश्वास 
तुमको ....
करुण  क्रन्दन में 
छिपा है गीत 
सुख के गान का ....




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सत्य का बयान

सत्य का बयान है 
समय की

अदालत में ....
सुन
आ पहुंचा 
घेरने को,
रोकने को,
मारने को,
भ्रष्टता, अन्याय,
अत्याचार, लोलुप स्वार्थ,
पाखण्ड, अहंकार का 
दल बनाकर 
झूठ ....
सब मिल 
सत्य को 
अगवा करेंगे -
मार कर लूला -
लंगड़ा करेंगे,
तोड़ेंगे उसके 
अन्दर का विश्वास 
उसके 
आत्मबल को 
भोथरा करेंगे ....
आज सत्य 
लूला-लंगड़ा 
संबल हीन 
दर-दर भटक 
मांगता है भीख 
न्याय की ....
पूछता है मार्ग 
समय की अदालत का ....




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कब तलक

यह दिवस का 
अन्त है
 
या 
अन्त जीवन का ....
डूबता प्रकाश 
छाया घोर तम 
छाया रहेगा तब तलक 
जब उगेगी 
प्रकाश की एक किरण 
अन्त  जीवन का 
यूँ लगता 
घोर निराशा 
डूबती आशा 
छाई तब तलक ....
जब 
दिखेगी 
आशा के किरण की 
एक झलक ....






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भंवर

जीवन सागर में 
भंवर है
आ गई 
मांझी ना दिखता,
और 
बाहुओ में, बल -
रहा नही 
शेष ....
भंवर के  
गर्त में 
डूबता ही जा रहा ....
साथ देने को 
खड़े जो 
मित्र बांधव 
कहकहे लगा रहे ....
मेरे डूबने के 
मंजर को देख 
जश्न सब 
मन रहे ....






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किसको दोस्त कहूँ

किसको दोस्त कहूँ ....
संबंधों के प्रश्न
उलझ गए ....
अनुबंधों के हाथ 
सुलझ गए ....
व्यापारी जो 
अपनेपन के 
उनको दोस्त कहूँ ....
किसको दोस्त कहूँ ....
मिले, मिल कर 
घर कर गए 
अन्त:स्थल में मेरे ....
भावों का घर 
साफ़ कर गए 
छल से सांझ-सवेरे ....
जिन्होंने प्रेम जाता 
कर लूटा 
उनको दोस्त कहूँ ....
किसको दोस्त कहूँ ....
मेरे कन्धों की 
सीढ़ी बना जो 
चढ़ते चले गए ....
बड़े प्यार से 
पीठ पे खंजर 
गड़ते चले गए ....
डस कर भागे 
जिसको दूध पिलाया हरदम 
उनको दोस्त कहूँ ....
किसको दोस्त कहूँ ....
मेरे सुख वैभव सब बांटे,
बड़े यतन से ....
जीवन पथ पर बोए कांटे 
बड़े जतन से ....
बाँध के कारा 
गिर के नीचे 
जश्न मनाते, लगा कहाके -
उनको दोस्त कहूँ ....
किसको दोस्त कहूँ ....




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यह पीढ़ी

जिन्हें नहीं है 
समय का ध्यान

जिन्हें नहीं भविष्य 
की चिन्ता 
जो वर्तमान को ही 
जी लेना चाहता हैं 
भरपूर, अपनी 
अपनी समस्त वासनाओं ....
गहरी एन्द्रिकता के साथ,
जो भूल गए हैं 
अपनी संस्कृति ....
सभ्यता के सरल -
सीधे मानदंड ....
अपनी जड़ों से कटी 
घोर भौतिकता 
गहरी विलासिता 
में डूबी, जो अपने-पराए ....
छोटे-बड़े के आपसी 
सहज व्यव्हार को 
भूली है ....
सहज संबंधों -
के सहज व्यवहार-आचार 
भूली है, ऐसी यह 
पीढ़ी 
कहाँ जाएगी और 
किधर ले जाएगी 
देश की कश्ती 
कि पतवार 
इन्ही हाथों में  है ....





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कुछ करो

जब तुम्हारी बात कोई 
सुनना न चाहे 
अपनी आत्मा से 
बात करो .....

मंझदार फँसा हो कोई 
जब जीवन के सागर में 
हो सके तो पार करो .....
ऊँचे सिंहासन पर तुजब तुमसे
कोई कुछ कहना चाहे 
अपना दिल साफ़ करो .....
दुखड़ा जब रोये 
कोई तुमसे 
उसका मत उपहास करो .....
अपने दिल का जख्म 
दिखाए जब कोई
प्रेम का लेप करो .....मको 
जब कोई बैठा दे 
तुरंत धरा उतरो .....
एकाकीपन जब तुमको 
खाने लग जाए 
कुछ न कुछ करो .....




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बेजुबान

बोल सकता है, मगर बेजुबान रहता है 
आदमी किस-कदर परेशान रहता है .....

जुबाँ क्या खोलें,अब इशारे की हैं मुश्किल 
खामोश, यहाँ शहर का हर निजाम रहता है .....
सीखते हैं लोग उनसे बेवफाई के हुनर 
सर पे जिनके वफ़ा का इल्जाम रहता है .....
माँ की चारपाई उस घर की रौनक थी 
अब वहाँ बहु का दीवान रहता है .....




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जिनके हिस्से अपनी माँ की लोरियाँ आती नहीं

जिनके हिस्से अपनी माँ की लोरियाँ आती नहीं
उनके सपनों में भी परियाँ, तितलियाँ आती नहीं .....
नींव पर जो स्वार्थ की चुनते गये, बुनते गये
ऐसे रिश्तों में कभी नजदीकियाँ आती नहीं .....

मेरी इन आँखों के आँसू जानते हैं बात ये
मेरी पलकों तक कीसी की उँगलियाँ आती नहीं .....

एक मुददत से मुझे तुम याद करते हो कहाँ
एक मुददत से मुझे अब हिचकियाँ आती नहीं .....

कौन – सा है घर जहाँ पर लोरियाँ गूँजी न हों
कौन – सा है घर जहाँ से सिसकियाँ आती नहीं .....




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अपनी ज़िंदगी को यहीं तमाम करतें हैं


अपनी ज़िंदगी को यहीं तमाम करतें हैं
चल इसें किसी और के नाम करतें हैं .....
बहुत दूर तक बहे बदी की इस नदी में
अब नेकी तट पर थोडा विश्राम करते हैं .....

रग-रग में ईर्ष्या-द्वेष के बेलों की हुंकारें
संयम साधना से उनपे लगाम करतें हैं .....

हावी है युगों से इस आनन् कई दसानन
इन्हें मिटाने को,खुद ही को राम करतें हैं .....

मृत्यु-शैया सन्मुख जीवन उत्सव हो जाये 
आ पर हित में ऐसा कोई काम करतें हैं .....





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गहरी प्यास को जैसे मीठा जल देते तुम बाबूजी

गहरी प्यास को जैसे मीठा जल देते तुम बाबूजी
जीवन को सारे प्रश्नों के हल देते तुम बाबूजी .....
सबके हिस्से शीतल छाया, अपने हिस्से धूप कड़ी
गर होते तो काहे ऐसे पल देते तुम बाबूजी .....

माँ तो जैसे – तैसे रुखे सूखे टूकड़े दे पायी
गर होते तो टाफ़ी, बिस्कुट, फल देते तुम बाबूजी .....

अपने बच्चों को अच्छा – सा वर्तमान तो देते ही
जीवन भर को एक सुरक्षित कल देते तुम बाबूजी .....

काश तरक्की देखी होती अपने नन्हें-मुन्नों की
फिर चाहे तो इस दुनिया से चल देते तुम बाबूजी .....





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मैं


मैं 
कितना अजनबी सा-
कितना रहस्यपूर्ण-
कितना मोहक-
कितना विनाशकारी
शब्द .....
मैं -
में डूबा सारा संसार 
बहुत कुछ पाने की चाह
सब जीत लेने का दम्भ 
कोई न हो-
मुझसे अधिक शक्तिशाली, धनवान, विद्वान् .....
किन्तु कितनी निरीहता-
कितना खोखलापन 
कि नहीं जीता जाता 
स्वयं मैं .....
कुछ मिले न मिले 
कुछ जीतें न जीतें 
कुछ पाएं न पाएं 
परन्तु 
जिसने पा लिया मैं 
जो मिल लिया मैं से 
जिसने जीत लिया मैं 
वह सृष्टि क्या 
इश्वर को भी 
जीत लेगा, पा लेगा .....






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पुरानी पायल

पूंजीपतियों को कम लगती है 
बेटी के घाघरे में सौ किलो चांदी भी
एक मध्यमवर्गीय 
देता हैबेटी को उजला कर
अपनी पत्नी की पुरानी पायल
एक गरीब 
चांदी की अंगूठी देने की
हसरत भी मार लेता है 
अपने ही सीने में 
यह किसका बनाया हुआ निजामत है 
बदलती है सरकारें तब भी नहीं बदलता





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पर्वत पिघलने से रहा

यहाँ कोई क्रांति नहीं होने वाली,
लाख हो-हल्ला हो,
धरने हों, अनशन हो
क्रांति की सामग्री मौजूद नही यहाँ,
जाति-धर्म-क्षेत्र में बंटे,
लोग क्रांति नही करते,

अपने  की फिक्र में परेशान,
लोग आन्दोलन नहीं करते,
सत्ता को रजा की तरह पूजने वाले लोग,
परिवर्तन नहीं लाते,
वर्जनाओं की आदत पड़ चुकी,
सीमित साधनों में जीना स्वीकार कर चुके हैं,
पैदा होते ही आत्मसात कर लिया,
हम जनता हैं,
हमें ढोना है एक उम्र 
एक जिंदगी नहीं,
गाँधी के बंदरों की तरह,
न हम देखते हैं,
न सुनते हैं,
न बोलते हैं,
जो छिटपुट शोर-शराबा होता है,
वो कुछ लोगों का शगल भर है,
कुछ खाली लोगों का टाइमपास,
कुछ धनाड्य का शौक,
कुछ सिरफिरों की सनक,
अखबार में फोटो छपने के बाद,
सबकुछ शांत,
अपने जीवन के पुराने रंग में,
फिर रंग जाते हैं सब,
मोमबतियां जलाकर,
न कभी जनता जगाई जा सकी,
न सत्ता को विरोध का एहसास होता है,
कुछ आकृतियों में,
सजाकर रखी गई,
मोमबतियां सुन्दर दिखती हैं,
आखिर 
केवल दीवाली में ही,
जलाने के लिए नहीं होतीं मोमबतियां,
कुछ नारे भी हवा में गूंजते हैं,
कुछ गीत गुनगुनाए जाते हैं,
कुछ गजलें भी गाई जाती हैं,
'दुष्यंत कुमार' की,
बिना उनका मतलब समझे,
लेकिन अगर,
पीर पर्वत-सी हो गई,
तो पिघलेगी कैसे,
उसके लिए आंच कहाँ है,
मोमबती की गर्मी से तो,
ये पर्वत पिघलने से रहा .....











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